Vasant Me Prasan Hui Prithvi By Kedarnath Agrwal
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वसंत में प्रसन्न हुई पृथ्वी ' प्रकाशन क्रम में केदारजी की उन्नीसवी संग्रह है । इस संग्रह में सन् 1939 से हेकर सन् 1960 तक की वे कवितायेँ संकलित है , जो इसके पहले प्रकाशित संग्रहों में शायद नहीं है । शायद इसलिए कि इस संग्रह की सारी कविताएँ तो संग्रह तैयार करने के पूर्व दो - तीन बार पढ़ ही चूका था , ऐसे में , इस संग्रह को तैयार करते समय , या तय कर पाना , बड़ा कठिन रहा है कि जो कविता संग्रह में संगृहीत कर रहा हूँ , उसे किसी पूर्व प्रकाशित संग्रह में पढ़ चुका हूँ या फिर पुरानी कविताओं के संकलन के दौरान ! वैसे पूरी सावधानी बरतने की कोशिश की गई है और इस संग्रह की कविताओं को पूर्व प्रकाशित संग्रहों से मिलाया भी गया है , फिर भी यह दावा नहीं है कि इसमें किंचित भी दुहराव नहीं होगा । प्रस्तुत संग्रह के अलावा मेरे द्वारा संपादित केदारजी की कविताओं के तीन कविता - संग्रह - ' कहें केदार खरी - खरी ' ( 1983 ) , ' जमुन जल तुम ' ( 1964 ) , और जो शिलाएँ तोड़ते हैं ' ( 1986 ) प्रकाशित हो चुके हैं । पहले दोनों संग्रहों की कविताओं का चयन विषय वस्तु के आधार पर और क्रम का निर्धारण काल के आधार पर किया गया है । तीसरे संकलन की कविताओं के चयन और क्रम दोनों का आधार काल है । ' वसंत में प्रसन्न हुई पृथ्वी ' की कविताओं के चयन और अन्न का आधार भी काल ही है । इस लिहाज से देखा जाए तो इस संग्रह की कुछ कविताओं को जो शिला तोड़ते हैं ' ( 1986 में प्रकाशित सन् 1931 से सन् 1948 तक की कविताओं का संकलन ) और ' जमुन जल तुम ' ( 1984 में प्रकाशित , सन् 1932 से 1976 तक की प्रेम कविताओं का संकलन ) तथा ' कहें केदार खरी - खरी ' ( 1983 में प्रकाशित राजनीतिक कविताओं का संकलन ) में ही संगृहीत हो जाना चाहिए था । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । क्योंकि उपर्युक्त उल्लिखित संकलनों में वही कविताएँ संकलित की गई है , जो फाइनल स्थिति में थीं या लगभग फाइनल थीं । जबकि प्रस्तुत संकलन की अधिसंख्य कवितायेँ , केदारजी के द्वारा फाइनल की हुई स्थिति में उपलव्य नहीं होती । कुछ कविताओं के तो एक से अधिक प्रारूप मिलते हैं । प्रमाण के लिए ऐसी कुछ कविताएँ पाद टिप्पणी के साथ संग्रह में दो भी गई हैं । इसलिए ' वसन्त में प्रसन्न हुई पृथ्वी की कुछ कविताओं में शिल्प की अनगढ़ता , प्रवाह की कमी , कसाव का अभाव और कहीं - कहीं अधूरापन या भाषाई दोष लक्षित हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द
(सन् १८८१-१९३६)
लेखक की कलम से
नये ढंग के चरित्र प्रधान उपन्यास लिखने वालों में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी का नाम सबसे पहले आता है। हिन्दी उपन्यास का वास्तविक और क्रमबद्ध विकास प्रेमचन्द जी के साहित्य में आगमन के बाद ही संभव हो सका। इससे पूर्व हिन्दी में उपन्यास या तो बंगाली, मराठी, अंग्रेजी कृतियों के अनुवाद या छायानुवाद थे या मात्र मनोरंजन के लिए लिखे तिलस्मी या अय्यारी की घटनाओं का सिलसिला या फिर प्रेम और वासना के रंगीन लोक की काल्पीन उड़ान भर थे। मानवीय जीवन और उसके सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध करने का श्रेय पहली बार प्रेमचन्द जी को ही दिया जा सकता है। देवकीनन्दन खत्री, गोपाल राम गहमरी, गोस्वामी श्रीनिवास आदि में अवश्य हिन्दी में उपन्यास विधा की स्थापना करके उसे लोकप्रिय बनाने की दिशा में अग्रगण भूमिका निभाई, किन्तु हिन्दी उपन्यास को निजी स्वरूप और व्यक्तित्व प्रदान करने में प्रेमचन्द जी ही आगे आते हैं। यह तथ्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि प्रेमचन्द जी ने अपने पूर्ववर्ती उपन्यास लेखकों द्वारा स्थापित उपन्यास विधा को अपनाया अवश्य, किन्तु उन्होंने उन लेखकों का प्रभाव स्वीकार नहीं किया। प्रेमचन्द जी ने अपने उपन्यासों में जिस कथ्य और भाषा शैली का प्रवर्तन किया व हिन्दी पाठकों के लिए अभिनव थी और उसके प्रति अनायास ही अमित आकर्षण भी उमड़ पड़ा। इसके परिणाम स्वरूप हिन्दी उपन्यासों का विकास एक निश्चित संभव हो सका। असंख्य पाठकों की वृद्धि के साथ अनेकानेक लेखक इस दिशा में उन्मुख हुए।
डॉ. कविता आचार्य
ISBN13- ISBN9788186298450
ISBN10- ISBN8186298450
MRP:-285/-
nice poetry book
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