नाटक साहित्य की सर्वाधिक प्राचीन विधा है। प्राचीन भारतीय साहित्य में काव्य के मानदंडों का विवेचन भी नाटक के अंतर्गत ही होता था। कविता में रस-विवेचन की परंपरा नाट्य-विवेचन से ही आई और काव्यशास्त्रीय मानदंडों के निर्माण में इसका महत्व इतना अधिक रहा है कि आधुनिक काल में भी, कम से कम छायावादी कविता तक रस की प्रासंगिकता निर्विवाद रूप से बनी रही। हिन्दी नाटकों के विकासक्रम का अध्ययन करें तो यह तथ्य सामने आता है कि जिस प्रकार हिन्दी कविता के इतिहास में उत्तर मध्य युग की रीतिबद्ध काव्यधारा जीवन विमुख, सस्ते मनोरंजन की प्रवृत्ति से ग्रस्त रही है, उसी प्रकार उस दौर से लेकर भारतेंदु युग के पूर्व तक नाटक के क्षेत्र में जो पारसी थियेटर का प्रभुत्व रहा, वह फूहड़, सस्ते और आम जन-जीवन के दुख-दर्द एवं संघर्षों से नाट्य-विधा को अलग करता प्रतीत होता है। भारतेंदु से नाटक की दिशा और दशा में परिवर्तन होता है, प्रसाद युग इसका उत्कर्ष माना जा सकता है जिसका प्रभाव स्वतंत्रता पूर्व तक के नाटकों पर बना रहा। इस पुस्तक में नाट्य-विधा के सैद्धांतिक विवेचन एवं विकासमूलक ब्योरों पर आधारित विभिन्न लेख हैं जो नाटक की ऐतिहासिक विकास-यात्रा पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। स्वतंत्रता के बाद, अर्थात् नयी कविता और नयी कहानी के दौर में नाटकों पर आधुनिकता का प्रभाव दो रूपों में दिखलाई देता है- प्रथम वे नाटक हैं जिनमें पौराणिक चरित्रों और घटनाओं पर आधारित आधुनिकतावादी दृष्टिकोण को लेकर नाटक लिखे गए, यथा- धर्मवीर भारती का अंधायुग, दूसरे वे नाटक जिनमें आधुनिकता की विडंबनाओं-विद्रूपताओं को दिखलाया गया। फ्रांसीसी अब्सर्ड नाटकों का प्रभाव भी इस दौर के नाटकों पर दिखलाई देता है। इस पुस्तक में संपादकीय दृष्टि की सूक्ष्मता और गहरी समझ परिलक्षित होती है। प्रारंभ में कुछ लेख नाटकों की सैद्धांतिक विवेचना पर आधारित हैं, इसके बाद इतिवृत्तात्मक अध्ययन से जुड़े लेख शामिल किये गए हैं जो विकासमूलक और प्रवृत्तिमूलक दोनों दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण हैं, विकासक्रम की दृष्टि से अलग-अलग नाटकों पर जो विश्लेषणात्मक लेख इस पुस्तक में लिये गए हैं वे एक-एक नाटक की विषयवस्तु, भाव-संवेदना, स्थापत्य और शिल्प एवं भाषा के संदर्भ में उनकी व्याख्या तो प्रस्तुत करते ही हैं, युगीन प्रवृत्तियों में सतत परिवर्तन और नाटकों में उनके प्रभाव को भी प्रतिबिंबित करते हैं। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह पुस्तक आज के दौर में नाट्य विधा के अध्ययन के प्रति जो रिक्तता दिखलाई देती है, उसको पूरा करने में एक सार्थक प्रयास साबित हो सकती है। खासतौर से वर्तमान परिदृश्य में रंगमंच की जो स्थिति है, उसपर भी एक आलेख इसमें शामिल किया गया है जो एक बड़े अभाव की पूर्ति करता है। अंत में, इस पुस्तक में जिन लेखकों ने अथक परिश्रम से लिखा है और संपादक ने जो श्रमसाध्य कार्य किया है, उसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं।
अजय
वर्मा
अन्नदा
कॉलेज, हजारीबाग
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